31. मैं पैगंबर क्यों नहीं हुआ ?
31. मैं पैगंबर क्यों नहीं हुआ ?
जीवन में मैंने ईमानदारी अपनाई। किसी की कुछ न छीनी, कुछ न चुराई। अगर किसी की गलती से मेरे पास उसका कुछ आ भी गया, तो जाकर उसे लौटा आया। केवल परिश्रम से ही रुपए कमाए। यदि दुनिया ने मुझे एक दिया तो मैंने परिश्रम के रूप में उसे तीन लौटाया। यह बात नहीं है कि मेरे पास किसी का कुछ नहीं है। वह है और बहुत है। बहुतों ने मेरी सहायता की, मुझे ऊपर उठाया। वह मेरे पास ऋण के रूप में है।
जब अंग्रेजी राज्य था, तो समाज ने भी मेरे साथ न्याय किया। मुझे छात्रवृत्तियां दीं, स्वर्ण पदक दिया, योग्यता के अनुसार रोजगार दिया, वेतन में भी अयाचित वृद्धि दी। पर उसके बाद समाज और सरकार ने, किसी व्यक्ति ने नहीं, मेरे देय हड़पना शुरू किया। मेरे कॉलेज ने मेरे दस हजार रुपए दबा लिए। सरकार ने मेरे स्कूल के प्रोविडेंट फंड का अपना हिस्सा निर्लज्जता पूर्वक दबा लिया, मेरी स्वतंत्रता सेनानी पेंशन दबा रही है, मेरी ग्रेच्युटी दबाई जा रही है और मेरे बच्चों की छात्रवृत्तियां दबा ली गई। समाज का ऋणी मैं नहीं, मेरा ऋणी समाज है। समाज के लिए, संसार और भारत की स्वाधीनता के लिए मैंने दो वर्ष जेल में काटे। सत्ताधारी और राजनीति व्यवसायी इसे सीधे पचा गए।
पर व्यक्ति जहां व्यक्ति है, सत्ता का अधिकारी नहीं, वहां उसने मेरी सेवाओं को हार्दिक स्वीकृति दी। मॉडल इंस्टिट्यूट के विद्यार्थी, मनेर स्कूल के विद्यार्थी, बबुरा स्कूल के विद्यार्थी, इन सब के अधिकारीगण - श्री हरेंद्र नारायण सिन्हा, श्री राजेंद्र प्रसाद, श्री दीप नारायण सिंह, श्री ब्रजनंदन सिंह, श्री देवनंदन प्रसाद, श्री भुवनेश्वरी दयाल, श्री जगदीश नारायण सिंह, श्री अलख देव नारायण सिंह, श्री सूरज प्रसाद सिंह - इन सब ने कृतज्ञता पूर्वक मेरी संस्था - सेवा को साधुवाद दिया।
सब मिलाकर, अपनी ईमानदारी के चलते, मैं घाटे में नहीं रहा। पर आज मैं अकिंचन हूं। मुझे इसका कोई पछतावा नहीं। दूसरे रास्ते जाने की मेरी रुचि ही नहीं थी, मेरा अधिकार ही नहीं था।
पर मेरे पास विचार हैं। वे भयानक रूप से क्रांतिकारी हैं। वे समाज का, संसार का बहुत कुछ कल्याण कर सकते हैं। मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता और इस प्रकार सामाजिक असमानता का सारा धार्मिक आधार ही मिटा देता हूं। मैं आत्मा के अमरत्व में विश्वास नहीं करता और इस प्रकार मृत्यु और उसके बाद के जीवन की भयानकता, जिससे जीवन में अंधविश्वास और पुरोहितवाद को सहारा मिलता है, सारा आधार मिटा देता हूं। मैं भ्रष्टाचार का, अन्याय का, वेतन के अनुरूप सेवा न देने का, जिनको मैंने व्यक्तिगत जीवन में कभी प्रश्रय न दिया - घोर शत्रु हूं। धनियों और उच्च पदाधिकारियों के शोषण और अकर्मण्यता का मैं सर्वथा सहानुभूति रहित उग्रतम विरोधी हूं। शिक्षा के क्षेत्र में, मोटी पुस्तक लिखने का, क्लिष्ट हिंदी का, पारिभाषिक शब्दों के संस्कृतीकरण का, पुस्तकों की अशुद्धियों का, कठिन पाठ्यक्रम का भी पूर्ण विरोधी हूं। संस्कृति के क्षेत्र में क्लिष्ट हिंदी और उर्दू का विरोधी तथा दोनों की निकटता का समर्थक हूं। राजनीति में मैं निरंतर कांग्रेसवादी हूं।
मेरे इन विचारों को मेरे निकट संपर्क वालों ने अच्छी तरह जाना। कुछ ने सुनकर मुंह बनाया, कुछ ने इन्हें महत्वहीन कहा। कुछ बड़े लोगों ने जान-बूझकर उपेक्षा की, कुछ ने विरोध किया। पर अन्य बड़े लोगों ने प्रशंसा भी की, और बहुतों ने उन्हें वृहत्तर जन समुदाय के बीच रखने का अनुरोध और आग्रह किया। मैंने इसे मान, और उनके विचारों में बल देख, उनके प्रकाशन का हल्का प्रयत्न किया, पर उपेक्षा पाई। जो नहीं जानते और उच्च पदस्थ है, उन्होंने हतोत्साह करने की कोशिश की। कुछ बराबर वालों ने भी वैसा ही किया। कांग्रेस वाले, यह जानते हुए भी कि उनमें से प्रायः सभी से अधिक सच्चा कांग्रेसी मैं हूं, मुझसे दूर रहे, कभी निकट नहीं आए। उच्च पदस्थ कांग्रेसियों ने मेरी कांग्रेस - परायणता की कोई परवाह नहीं की।
तो मैं क्यों पैगंबर बनूं ? यदि किसी को मुझसे कुछ नहीं लेना तो उसे मैं क्यों दूं ? यदि संसार मेरी परवाह नहीं करता, तो मैं उसके लिए क्यों मरूं ? संसार तो अपने पैगंबरों की सुनने के बदले उन्हें सताता है। न उसने बुद्ध की सुनी, न ईसा की, न गांधी की। वह किसी पैगंबर पर पत्थर फेंकता है, किसी को जहर पिलाता है, किसी को शूली पर चढाता है, किसी की खाल खिंचवाता है, किसी को गोली मारता है, किसी के मरने पर उसकी निंदा करता और उसका नाम मिटाने का प्रयत्न करता है। ऐसे संसार का उपकार करने मैं क्यों जाऊं ?
और ईश्वर ? ईश्वर यदि है (और वह है जैसा मेरा तर्क मुझे मानने को विवश करता है), तो कहां वह ईमानदारो की, पैगंबरों की, या अपने भक्तों की ही सुधि लेता है ? यह ठीक है कि दुनिया और मैं, और वे पैगंबर भी, उसकी हवा में सांस लेते हैं, उसकी पृथ्वी पर रहते हैं, उसके सूरज से गर्मी और रोशनी पाते हैं, उसका पानी पीते हैं, उसका अन्न खाते हैं, उसके दिए शरीर का सुख उठाते हैं। पर भलों का सहायक या साथी वह होता कब है ? वह तो उन्हें सता मारता है।
उसने भक्त सूर को अंधा बनाया, भक्त तुलसी के शरीर में फोड़े और बाहु-पीड़ा उपजाई, भक्त रामकृष्ण और हनुमान प्रसाद पोद्दार को कैंसर दिया। ईसा शूली पर चढ़े, उसे पुकारते रहे, वह पास ना फ़टका । उन्होंने कहा, पिता ! तुमने मुझे छोड़ दिया ? वह चुप रहा।
और मुझे ? मुझ सर्वथा निरपराध को उसने मेरी युवावस्था में अकारण पुत्र शोक और फिर पत्नी शोक की असहनीय पीड़ा दी। समय-समय पर उसने मुझ बेबस को अन्य भयावह मानसिक और शारीरिक पीड़ा पहुंचाने में भी कोई कसर न छोड़ी।
ऐसी स्थिति में, जब ईश्वर और दुनिया विरोध में खड़े हों, तो मैं पैगंबर क्यों बनूं ?
32. ईश्वरेच्छा
अब मैं यह मानने को विवश हूं कि जो कुछ होता है वह ईश्वर की मर्जी से होता है। इस मर्जी का कोई तुक या कारण नहीं है, यह सिर्फ उसके मन की मौज है। फिर भी यह किसी सत्ता मदान्ध तानाशाह की मौज नहीं, एक खिलाड़ी शिशु की मौज है जो खिलौने को कभी हिफाजत से रखता है, कभी पटकता है, कभी दुलारता है,कभी फोड़ देता है। इसी प्रकार ईश्वर भी अपने बनाए हुए प्राणियों को अपनी मौज के मुताबिक कभी दुलारता है, कभी रक्षा करता है, कभी गड्ढे में डाल देता है, कभी नष्ट कर देता है। यह बात नहीं कि जो अच्छे हैं वे सुख पाते हैं और बुरे दुख पाते हैं; भक्त प्रिय हैं और अनीश्वरवादी अप्रिय। अच्छे दुख भी पाते हैं; सुख भी। बुरे काफी सुख में दिन बिताते हैं, कभी कुत्ते की मौत मरते हैं। भक्त भी कराह-कराह कर जान देते हैं। सुख-दुख के जो भौतिक कारण दीख पड़ते हैं वे मौलिक नहीं, ऊपरी है; मौलिक उसकी मर्जी ही है।
33. दुर्दिन और धैर्य
आपत्ति या विपत्ति काल में यद्यपि परम दैवत को ही हमारा परम सहायक होना चाहिए, पर वस्तुवादी दृष्टिकोण से धैर्य मनुष्य का परम सहायक है। वह एकमात्र सहायक है। अतः मनुष्य को दुर्दिन में उसका आश्रय उसी प्रकार लेना चाहिए, जिस प्रकार समुद्र में नौका का।
चाहे हम भौतिकवादी न भी हों, पर वस्तुवादी (realist) तो हमें होना ही चाहिए। और इस दृष्टि से, दुर्दिन में धैर्य का आश्रय तो किसी प्रकार छोड़ा ही नहीं जा सकता।
कोई भी आपत्ति या विपत्ति उद्धार का कोई गुप्त मार्ग (clue) लेकर ही आती है। शायद ईश्वर की यही सहायता है। धैर्य में ही मनुष्य की बुद्धि शान्त, स्थिर और सक्रिय रह सकती है और वह विपत्ति का उद्धार - सूत्र (clue) खोज सकता है।
अतः यद्यपि भक्त विपत्ति से मुक्ति का केवल एक उपाय - ईश-शरणागति - बताते हैं, वस्तुवादी की दृष्टि से उसके निम्नलिखित दो उपाय हैं:
1. धैर्य
2. बुद्धि का उपयोग
34. अध्ययन के उद्देश्य
अध्ययन की निम्नलिखित उपलब्धियां होनी चाहिए:
1. ज्ञान
2. आनन्द
3. शक्ति
4. प्रज्ञा
5- स्थितप्रज्ञता
ज्ञान का अर्थ है जीवन और जगत- संबंधी तथ्यों की उपलब्धि।
आनन्द का अर्थ है रसानन्द, जो ब्रह्मानंद - सहोदर है।
शक्ति का अर्थ है देश और दुनिया की समस्याओं के समाधान की योग्यता।
प्रज्ञा अर्थात जीवन की विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता।
स्थितप्रज्ञता का अर्थ है सुख- दुख, विभव - पराभव, मान- अपमान में चित्त की स्थिरता। इसके अंतर्गत निम्नलिखित स्थितियां समाविष्ट हैं:
1. काम, अर्थात लोभ पर विजय।
2. क्रोध, ईर्ष्या और द्वेष पर विजय।
3. निराशा, भय, विषाद, असहायता, दुर्बलता,
और हीन-भावना पर विजय।
4. आत्म - विश्वास, निष्ठा, साहस, आशा और
संकल्प की उपलब्धि।
एक अन्य अत्यंत आवश्यक उपलब्धि, जो अध्ययन का परिणाम नहीं है और जो सहज - बुद्धि और थोड़ी अग्रदृष्टि से ही हो जाती है, वह है व्यावहारिकता। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने जब कहा कि " This shows how dangerous it is to be too good " तो वहां 'too' का अर्थ था
' व्यावहारिकता - रहित ' या ' अरक्षित '।
इसके अभाव में मनुष्य दुर्भावना - ग्रस्तों का सहज शिकार बन जाता है। अतः दूसरों के व्यवहार पर दृष्टि रखकर उनसे सचेत रहना और उनसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। ' जो जैसा करें उसके साथ वैसा ' - यही सिद्धांत-वाक्य होना चाहिए।
35. अंधविश्वास
आमतौर से मैं अंधविश्वासों का शत्रु हूँ। भूत - प्रेत, दुआ - ताबीज, ग्रह - नक्षत्र, साधु - फकीर, जोग - जप आदि मैं नहीं मानता। पर ईश्वर को मानने के फल-स्वरूप मैं उसके चमत्कार आदि में विश्वास करने लगा हूं। फलस्वरूप मेरा मन कुछ अति प्राकृतापेक्षी हो गया है।
यह गलत है। अति प्राकृत कुछ भी नहीं होता। जो कुछ होता है वह प्राकृत है, उसके पीछे विधाता या ईश्वर का कोई उद्देश्य देखना बिल्कुल गलत है। न कुछ हमारी भलाई के उद्देश्य से होता है, न बुराई के उद्देश्य से; न हमें पुरस्कृत करने के लिए, न दंडित करने के लिए। यदि कुछ इस प्रकार का होता भी हो, तो मैं उसे जानने वाला नहीं हूं, वह मेरे ज्ञान - क्षेत्र के बाहर है। मुझे केवल यही जानना चाहिए कि जो कुछ हुआ है वह ' भौतिक स्थितियों के संयोग ' से हुआ है, उसे उसी रूप में लेना और उसका सामना करना चाहिए। बार-बार भगवान को दोष देना ठीक नहीं।
यह तो नहीं हो सकता कि भगवान चाहते थे कि तुलसीदास को बाहु-पीड़ा और फोड़े हों, हनुमान प्रसाद पोद्दार और रामकृष्ण परमहंस को कैंसर हो, ईसा मसीह शूली पर चढ़ाए जाएं। सुकरात को जहर दिया जाए, भुट्टो को फांसी पड़े। तो फिर ये बातें यदि हुईं तो किन्ही स्थितियों के संयोग से। ये अघटन घटनाएं थीं, इन्हें नहीं होना चाहिए था। इसी प्रकार औरंगजेब को नहीं जीतना चाहिए था, भारत को पराधीन नहीं होना चाहिए था। फिर भी ये बातें हुईं। जॉन द आर्क को, जॉन हस को नहीं जलाया जाना चाहिए था, पर वह भी हुआ।
क्यों ? इसलिए नहीं कि भगवान इन्हें चाहते थे। स्पष्ट रूप से इसलिए कि स्थितियों ने इन्हें कराया। हमारा आरोप यह है कि भगवान ने इन्हें रोका क्यों नहीं ? अनर्थ क्यों होने दिए? भुट्टो ने कहा था " या खुदा, मैं बेकसूर हूँ।" ईसा ने कहा था " My father, Thou hast forsaken me ? भुट्टो की, ईसा की प्रार्थनाओं पर ध्यान क्यों नहीं दिया ? उन्होंने ध्यान नहीं दिया, यह नकारा नहीं जा सकता।
अतः यह स्पष्ट है कि इस मामले में सचेत हो जाना चाहिए कि घटनाएं, बुरी से बुरी, स्थितियों के संयोग से होती हैं और भगवान उन्हें नहीं रोकते। उन्होंने प्रहलाद को नहीं बचाया। द्रौपदी और पांडवों को कृष्ण ने बचाया।
घटनाएं भगवान की मर्जी से नहीं होतीं। ' बिना कृपा भगवान के तिनुका डोलत नाहिं ' गलत है ।
' Not a leaf turns but by His mercy ' गलत है।
36. धर्म और जीवन
मैं यह मानकर चलता हूं कि जीवन सत्य है। जीवन की ही भांति जगत भी सत्य है। वह जीवन की समष्टि है। जो व्यष्टि रूप में जीवन है, वही समष्टि रूप में जगत है, इसलिए जीवन और जगत दोनों ही सत्य हैं ।
आज तक के धर्मों ने अधिकतर जीवन से परे परलोक की चिंता की है। उसे सुधारने और जीवात्मा के लिए सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है। पर कुछ भ्रांत परलोकवादियों को छोड़कर अधिकांश विचारकों ने अपने इस प्रयत्न में जीवन के ही सफल यापन के नियम बनाए हैं। बुद्ध का निर्वाण जीवन मुक्ति का ही पर्याय है। उनका निर्वाण प्राप्ति का अष्टांगिक मार्ग, जीवन के ही उचित मार्ग का यापन है। ईसा का पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करने का प्रयत्न, जगत की बुराइयों के उन्मूलन के पश्चात प्रेम का राज्य स्थापित करने का मार्ग है। गांधी जी की अहिंसा बिल्कुल ही आध्यात्म रहित है। वह जगत से शोषण मिटाने का मार्ग है, प्रत्येक आंख से प्रत्येक आंसू मिटाने का मार्ग है।
आध्यात्म ने धर्म में प्रवेश करके जीवन को देखने का दृष्टिकोण विकृत कर दिया है। एक ओर तो लोग जीवन की सफलता अधिकाधिक धन और बल संचय करने में मानते हैं, दूसरी ओर जीवन की कथित असारता से डर कर परलोक सुधारने के प्रयास में भी लग जाते हैं। मृत्यु हमारे लिए भय की वस्तु बन गई है। सगुण और निर्गुण संत हमें जीवन से भागने का उपदेश देने लगे हैं। कबीर दास बार-बार याद दिलाते हैं कि हमें यहां रहना नहीं है। यह देश वीराना है। जिस शरीर को हम इतना प्यार करते हैं, वह जल जाएगा और हम इस दुनिया को छोड़ चले जाएंगे। आखिर चले कहां जाएंगे ? जिस दुनिया में हम जाएंगे, वह कैसी होगी ? पुराणकारों ने उसके अत्यंत भयानक चित्र खींचे हैं । पर किसी ने भी उसे देखा तो नहीं। जो कुछ भी हो, यह सत्य है और सभी इसे मानते भी हैं कि वहां परमात्मा है। परमात्मा तो सर्वव्यापी है और सर्वत्र एक सा है। जो परमात्मा यहां है, वही परलोक में भी है। यहां वह प्रत्येक जीवन और संपूर्ण जगत के लिए अत्यंत करुणामय है। अतः परलोक में भी वह वैसा ही रहेगा। यहां वह हमारे अत्यंत निकट है, उसे खोजने कहीं नहीं जाना है। और जैसा कि स्वयं कबीर दास कहते हैं:
मोकों कहाँ ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।
ऐसा ईश्वर निरंतर हमारे साथ है, जिससे बड़ा उपकारी कोई नहीं। इसलिए यदि जीवन सफल है और सुख एवं आराम की वस्तु है, तो परलोक भी वैसा ही है। जीवन भलीभांति जीना, इससे रागात्मक संबंध स्थापित करना, रिश्ते- नाते ही नहीं बल्कि समस्त जगत से प्रेम करना, अपनापन स्थापित करना - यही जीवन की सार्थकता है।
धर्म जीवन का व्याकरण है, परलोक का नहीं। परमात्मा हमारा साथी, मित्र, सहायक, पिता और भ्राता है - जीवन में और मृत्यु के पश्चात। इसलिए मृत्यु डरने की वस्तु किंचित भी नहीं। हां, वह वरण करने की वस्तु नहीं है ; वरण करने की वस्तु जीवन ही है।
37. Lawyers & Judges
मैं इसका कायल नहीं कि बड़े-बड़े संवैधानिक वकील शुद्ध निर्णयों की मूर्ति हैं। किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर कानून या संविधान की जो व्याख्याएं वे प्रस्तुत करते हैं, वे न शुद्ध होती हैं ना विद्वत्तापूर्ण। इसका पहला प्रमाण तो यही है कि उनके निर्णय परस्पर भिन्न ही नहीं, विरोधी होते हैं। इनकी बुद्धि सर्वथा भ्रांत और अविश्वसनीय होती है। इनका नकारात्मक मूल्य है।
इन सर्वथा व्यर्थ और हानिकारक लोगों की इस असफलता का कारण स्पष्ट है। ये लोग लिखित शब्दों के बाहर कुछ नहीं देखते, उसके गुलाम होते हैं। कोई भी संविधान अपने-आप में पूर्ण हो ही नहीं सकता, वह बहुत कुछ सामान्य बुद्धि पर छोड़ता है। इनके पास सामान्य बुद्धि नहीं होती, सामान्य समस्या को भी ये असामान्य बुद्धि से देखते हैं। अतः इनका निर्णय सदा गलत होता है। दूसरे लिखित शब्दों के गुलाम होने के कारण इनकी मुक्त दृष्टि होती ही नहीं; व्यापक दृष्टिकोण से यह किसी प्रश्न को नहीं देखते। अग्रदर्शी तो ये होते ही नहीं। अतः उनकी दृष्टि नितांत संकीर्ण और पश्चगामी होती है।
यही कारण है कि जहां सामान्य बुद्धि निश्चय कर सकती है, वहां भी ज्ञान के इन तथाकथित पंडितों की सभी राय इनसे भिन्न होती है। हिसाब के सवाल का उत्तर एक ही होता है, और किसी स्थिति का समाधान भी एक ही होता है। पर ये एक ही वस्तु के परस्पर विरोधी अर्थ निकालते हैं।
पढ़े - लिखे लोगों की धारणा है कि जज के निर्णय शुद्ध होते हैं। पर वास्ताविकता यह है कि वे भी निर्भ्रान्त और शुद्ध नहीं होते, न वे निष्पक्ष ही होते हैं। श्री भुट्टो को फांसी की सजा देने वाला एक जज ही था, गांधी जी को 1922 में सजा देने वाला भी एक जज ही था। गांधी जी की एक भी चुनौती का सामना उसने नहीं किया, उनके उठाए किसी भी प्रश्न का उत्तर वह नहीं दे सका, उल्टे उन्हें छ: वर्ष की सजा दी। ईसा को भी शूली की सजा देने वाला जज ही था। हम कैसे मान लें कि जज का निर्णय उचित, निष्पक्ष और कल्याणकारी होता है? जज की भी बुद्धि लिखित शब्दों का दास होती है। वह भी संकीर्ण और पश्चगामी बुद्धि से युक्त होता है। समाज के लिए उसके निर्णय कल्याणकारी हो ही नहीं सकते।। कुछ वर्ष पूर्व बने हुए कानून को ही वह लागू करता है और गुत्थियों में फंस जाता है।
वह निष्पक्ष भी नहीं होता। मानवीय कमजोरियाँ उसमें भी हैं। साथ ही वह तत्कालीन सरकार के दबाव में रहता है। और लोगों का पक्षपात तो कभी अग्रगामी शक्तियों के साथ हो भी सकता है, पर जज का पक्षपात सदा पश्चगामी शक्तियों के साथ रहता है। अतः जज के निर्णय को अकाट्य या प्रमाणिक कभी भी नहीं मानना चाहिए।
वकील वही हैं, जो झूठे मुकदमे लेते हैं और उन्हें सच सिद्ध करने के लिए जान लड़ा देते हैं। बाल की खाल निकालने में इनकी योग्यता अवश्य ही प्रशंसनीय होती है, पर उससे ये सत्य का अन्वेषण तो नहीं करते। ऐसे ही असत्यपरायण वकील पीछे जज भी हो जाते हैं, तो वे न्यायमूर्ति कहलाते हैं ; जो इस शब्द का माखौल है। जो सीधे नियुक्त किए जाते हैं उनकी सत्य परायणता की कोई परीक्षा तो की नहीं जाती। फिर उन्हें न्यायमूर्ति कैसे मान लिया जा सकता है ?
38. सरकार
सभी मानवीय संस्थाओं में प्रबल और अनिवार्य सरकार है। इसका आरंभ मनुष्य के सम्मिलित जीवन के आरंभ के साथ ही हुआ। तब से आज तक कोई जाति कभी सरकार के बिना नहीं रही। राजा रहा, चुना हुआ राष्ट्रपति रहा, विजयी सेनापति रहा, अधिनायक रहा, कभी समाज का सबसे पतित मनुष्य या डकैत बलपूर्वक सत्ता हाथ में लेकर बैठा। पर सरकार का प्रमुख कोई भी रहा हो, उसके नाम का सिक्का प्रजा पर जमा रहा। उसकी जो भी आज्ञा हो, सही या गलत, न्याय युक्त या अन्याय से भरी, प्रजा मानने को बाध्य रही। सत्ताधारी की आज्ञा का पालन अनिवार्य रहा। सरकार प्रभु सत्ता प्राप्त संस्था का ही नाम है। मृत्यु के पहले इससे छुटकारा नहीं।
पीछे जब सभ्यता बहुत आगे बढ़ी, तो सरकार एक अति विकसित मशीनरी हो उठी। समाज के विद्वान, विशेषज्ञ, निपुण, बड़े से बड़े लोग इसके अंग या सहायक बन गए। आज शासकों और प्रशासकों का एक विशाल समूह, जिनकी योग्यता परीक्षित होती है, सरकार कहलाता है। अतः अपने अधिकारों की व्यापकता एवं सदस्यों की योग्यता के कारण सरकार समाज की सर्वश्रेष्ठ संस्था होनी चाहिए। समाज में इसका अस्तित्व एक वरदान होना चाहिए।
पर सच्चाई यह है कि समाज में जितनी भी संस्थाएं हैं, उन सब में सबसे अधिक अविश्वसनीय और गैर जिम्मेदार संस्था सरकार है। उसके सदस्य निहायत निकम्मे, कामचोर, जनता को लूटने वाले, और जनता के हित से बेखबर आदमी हैं। सभी सदस्य सदा काम को टालने की कोशिश में रहते हैं और उतना ही करते हैं जितने से कि वह कैफियत देने से बच सकें। वे बिना काम किए भी इससे बचने का उपाय करते हैं और इसके लिए अधिकारियों की खुशामद करते और उन्हें डालियां देते हैं। जितना काम होता है उसमें खर्च तो आवश्यकता से अधिक होता है, पर लाभ भी उससे होता है या नहीं, इसकी परवाह उन्हें नहीं है। अपूर्ण योजनाओं से कुछ भी लाभ नहीं होता, इसकी उन्हें परवाह नहीं, उन्होंने उतना काम किया तो - इसी का वे ढिंढोरा पीटते हैं। शायद किसी भी गैर सरकारी संस्था में इतने अनैतिक कर्मचारी नहीं मिलेंगे, जितने सरकार में मिलते हैं और यह बात उच्चतम अधिकारियों से लेकर निम्ननतम कर्मचारियों, सब में होती है, बल्कि पहले में पिछले से अधिक।
किसी काम के लिए सरकार को आवेदन कीजिए, आवेदन उसकी फाइल में पड़ा रहेगा। हजार बार याद दिलाइए, वह आगे नहीं बढ़ेगा। कुछ नई जांच का आदेश भले ही हो जाए। उस जांच का संतोषजनक उत्तर भिजवाइए, वह उत्तर भी फाइल में गुंथ कर पड़ा रहेगा। अधिकारी से मिलिए, वे किरानी बाबू को बुलाकर कुछ कहेंगे। फिर किरानी बाबू क्या करते हैं, इसका अधिकारी को कुछ भी ध्यान नहीं रहेगा। कहीं अपील कीजिए, तो वह अपील फिर उसी ऑफिस में विचारार्थ भेज दी जाएगी और अपील वाले साहब अपनी ड्यूटी से मुक्ति पा लेंगे। आपका आवेदन महीनों नहीं, वर्षों पड़ा रहेगा। वह अनंत काल तक भी पड़ा रह सकता है।
सरकार वाले समझते हैं कि उन्हें जो वेतन मिलता है, वह उनकी नियुक्ति मात्र का पुरस्कार है; केवल वेतन के बदले उन्हें कोई भी काम नहीं करना है। किसी काम को करने के लिए विशेष प्राप्ति चाहिए- खुशामद, पैरवी, भाई-भतीजे को लाभ आदि। यदि इनमें से कोई नहीं है तो काम नहीं होगा। सरकार का सदस्य होते ही यह दृष्टिकोण कहां से आ जाता है, आश्चर्य है। मंत्री तक का यही दृष्टिकोण है। सरकार की यह विशाल वाहिनी सर्वथा निकम्मी और फिजूल है।
ऐसा किसी भी अन्य संस्था में नहीं है। परिवार का हर सदस्य दूसरे के लिए बिना दाम परिश्रम करता है। किसी दुकान में जाइए, जो पैसे आप देते हैं, उसके बदले आपको चीज मिलती है। दूकान का कर्मचारी आपकी सेवा तत्काल करता है। किसी भी व्यापारिक संस्था से पत्र व्यवहार कीजिए, उत्तर और आवश्यक सेवा तत्काल मिलेगी। गैर सरकारी बस में जाइए, आपको उचित सेवा मिलेगी और पैसा वसूल होगा। किसी भी गैर सरकारी संस्था में आपका रुपया मारा नहीं जाएगा। सरकारी संस्था में निश्चित रूप से आपके अधिकारों का हनन होगा, आपका देय किसी हालत में नहीं मिलेगा। कितने सरकारी नौकरों की पेंशन उनके जीवन काल में नहीं मिली। कितनों का मुआवजा सरकार के यहां पड़ा रह जाता है। सरकार उसे खा जाती है। यह है सरकार, जो जनता से अरबों रुपए टैक्स लेती है और बदले में कुछ नहीं देती। क्या किसी भी व्यक्ति के यहां डकैती होने से सरकार बचा पाई है ? किसी खून को, किसी चोरी को उसने रोका है ? खून और चोरी के बाद सरकार के हाथों व्यथित परिवार को कौन सी मुसीबत उठानी पड़ती है, यह किसे नहीं मालूम ?
अतः सरकार समाज की सबसे बुरी, निकम्मी और फिजूल संस्था हो गई है, यह सिद्ध है। गैर सरकारी संस्थाएं नैतिक और जन कल्याण की जिम्मेदार हों तथा जनता के रुपयों से पलने वाली सरकार अनैतिक हो, यह समाज की एक घोर विडंबना है।
मैं अराजकतावादी नहीं हूं। लोक कल्याण के लिए मैं सरकार को अनिवार्य समझता हूं। पर सरकार को सर्वथा नैतिक, परम विश्वसनीय, सेवा परायण एवं कल्याणवादी होना चाहिए।
39. तीन सत्य
1. बीमारी से चिढ़ कर मैं अपनी अहम्मन्यता में ईश्वर से नाता तोड़ने का संकल्प कर बैठा। मैंने ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार कर दिया। मैंने अपने को समझाया - ईश्वर होता, तो दुख क्यों होते ? इतने गरीब क्यों होते ? इतने दुखी क्यों होते ? और खास कर ईश्वर के परम भक्त - रामकृष्ण परमहंस और तुलसीदास दुखी क्यों होते ? ईश्वर यदि है, तो सुख - स्वरूप है और तब दु:ख नहीं हो सकता। पर दु:ख है, इसलिए ईश्वर नहीं है।
इस प्रकार आश्वस्त हो मैंने ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकृत कर दिया।
थोड़ी ही देर बाद मैं दवा खाने उठा। मेरे मन में एक झटका हुआ- ऐ, दवा खाने का मेरा क्या हक है ? क्या यह मेरी बनाई हुई है ? दवाएं, जिनसे रोग अच्छे होते हैं, अवश्य उन पैसों से अधिक मूल्यवान हैं, जिनसे उन्हें हम खरीदते हैं। तो यह अतिरिक्त वस्तु मुझे कौन देता है? माना कि मेरे मानव-बंधु । पर ,ये मानव-बंधु क्या मैंने उपजाए हैं ? किसी और ने ही तो उन्हें बनाया, उन्हें बुद्धि दी ? वह और कौन है ?
वह और कौन है ? वह कौन है जो दिन को सूरज देता है और रात को चांद या चिराग ? जो पीने को पानी देता है, फलों वाले पेड़ देता है, लकड़ी देता है, कोयला देता है; एक दाना बो दीजिए, सौ दाने उगा देता है, जिससे हमारा पेट भरे । और हम हैं, जो अपना पेट भरकर निश्चिन्त हो जाते हैं। कौन उस पेट में गए अन्न को पचाता है, उससे खून बनाता है ? हम अपना काम भी तो पूरा नहीं करते; उसका 99% तो वही कर देता है। वह कौन है जो हमें खाना भी देता है और उसे पचाता भी है ? जो हमें खड़े होने के लिए भूमि तक देता है, नहीं तो हम खड़े भी नहीं हो सकते ।
निस्संदेह वही ईश्वर है। और कोई इतना सारा काम नहीं कर सकता है। सारी मनुष्य जाति मिलकर भी इसके दो प्रतिशत से अधिक नहीं कर सकती।
तब मैंने निश्चय किया, ईश्वर से छुटकारा नहीं। उसे मानो या ना मानो, उससे लड़ो ही क्यों नहीं। वह इतना अधिक है कि वह तुम्हारा है और सदा रहेगा।
तब फिर दुख क्यों होते हैं ? अन्याय क्यों है, उत्पीड़न क्यों है ? रूदन क्यों है ? प्राकृतिक विपत्तियां भी क्यों हैं ?
प्राकृतिक विपत्तियां हैं तो उनका उपचार है। उसने मनुष्य को हाथ दिए हैं, बुद्धि दी है। अतः यदि वह मिलकर काम करें तो उनका उपचार कर सकता है, उनकी रोकथाम भी कर सकता है। पर वह पूरा मिलकर काम नहीं करता। ईश्वर ने उसे हमारे बंधु-रूप में भेजा है, वह वैसा आचरण करता भी है, पर नहीं भी करता। वही हमें दलित - उत्पीड़ित करता है। अतः दुख का कारण उसका सीमित ज्ञान है, उसका अविवेक है, उसकी अकर्मण्यता है। दुख का कारण वह ईश्वर नहीं है, वह तो सुख- स्वरूप ही है।
2. उससे लड़ना बुरा नहीं, कृतघ्नता नहीं, वह भी भक्ति है । उसे अस्वीकार करना बुरा है, कृतघ्नता है, अविवेक है,अन्धता है।
कभी एक बार भी - याद पड़ने पर - ' हे राम ' कहना उसकी पूरी भक्ति है।
मनुष्य जाति से प्रेम करना, कुछेक की सेवा करना, मीठा बोलना, झुक कर रहना, पड़ोसी को प्यार करना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना उसकी भक्ति है।
बड़ों के प्रति श्रद्धा रखना, वीर-पूजा करना - राम, कृष्ण, बुद्ध,गांधी, ईसा, तुलसी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद, नेहरू, पटेल आदि उसकी विभूति थे - उसके प्यारों को प्यार करते थे, अतः उनकी पूजा करना - उसकी भक्ति है।
3. प्रत्येक दु:ख के जाने का समय होता है। वह बीतता है। इसलिए घबराना नहीं चाहिए।
सुख के जाने का समय नहीं होता है, क्योंकि ईश्वर सुख - स्वरूप है, इसलिए उसकी सृष्टि भी, जगत भी, जीवन भी सुख - स्वरूप है। पाप की बाधा हटा दीजिए, तो सुख ही सुख है। दु:ख जाने के लिए आता है, सुख जाने के लिए नहीं, रहने के लिए आता है। हम ही उसे भगा देते हैं। दु:ख अस्थायी है, सुख स्थायी है ।
40. Myself versus The Buddha
1. Buddha thought that this life is an unwanted thing and we must try to get rid of it forever. I hold that this is the only life that we have to live and work in and hence it must be made the most of.
2. Hence, while Buddha taught detachment from the world which is evil and full of misery, I am for attachment to this happy world, for here alone happiness is possible, there being no life beyond it.
3. Buddha taught Righteous Living as the means to emancipation, I am for Righteous Living as the means to happiness in this life.
4. The Devotees agree with Buddha that this life is evil, but they are positive in that they seek refuge from this life in God. For me, God is not an escape from life, but is an aid to life, to its various enjoyments, and to righteous living.
5. God has given us this life and the sources of its enjoyment and therefore he wants us to live it well and to enjoy it fully and never to seek an escape from it unless the body becomes useless or a source of trouble.
6. All that we have therefore to do is to love and serve our family, our neighbours, our society, our country and all mankind; and through all this seek help from Him, love Him and be thankful to Him.