1. देव - पूजन
1. देव - पूजन
परम दैवत शिव, उमा, राम और कृष्ण की पूजा तो अनिवार्य ही है। वे तो परमात्मा के स्वरूप ही हैं ।
सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वरुण, इंद्र और अन्नपूर्णा - ये प्राकृतिक शक्तियां हैं। दिव्य होने के कारण ये देव ही हैं। ये हमारा असीम उपकार करते हैं - जीवन-धारण इन्हीं के कारण संभव है । यद्यपि ये अचेतन हैं, पर हमारी उपकृत भावना इन्हें पूजे बिना नहीं रह सकती । अतः इनकी पूजा भी विधेय है ।
इसी प्रकार गंगा, हिमालय, भारत हमारे उपकारी हैं और इनके सम्मुख श्रद्धावनत होना हमारा कर्तव्य है ।
गणेश और लक्ष्मी हमारी मंगल भावना एवं धन - भावना के प्रतीक हैं। इनकी पूजा अवश्य ही मंगल तथा प्राचुर्य - विधायिनी है ।
सर्प, रोग, अमंगल, अनिष्ट की पूजा , उनके निवारणार्थ, हमारी मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है।
पर मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि की पूजा, जिनका हम पृथ्वीवासियों से कोई संबंध नहीं, सर्वथा निरर्थक और अविहित है । नक्षत्र-पूजा भी इसी प्रकार निरर्थक और अविहित है। सामूहिक रूप से भी पृथ्वीवासियों पर इनका नगण्य प्रभाव है, व्यष्टि-मानव पर तो इनका प्रभाव शून्य है। इनसे डरना, इनकी शांति के लिए रत्न धारण करना सर्वथा जहालत है।
भलाई - बुराई का एक बैंक है, जहां हमारे किए हुए सत्कर्मों और दुषकर्मों के परिणाम संचित होते रहते हैं और शीघ्र या देर से ब्याज के साथ मिलते हैं । उनको हम भले ही भूल जाएं, नियति नहीं भूलती।
परिणाम तो मिलते ही हैं, हमें मिलें या समाज को। मेरा मत है कि उनका पूरा फल दोनों को मिला कर मिलता है, यदि हमें नहीं मिला तो समाज को मिलता है । धार्मिक मत है कि उनका पूरा फल कर्ता को ही मिलता है, चाहे इस जीवन में मिले या परलोक में ।
इस जीवन में मिलता वह देखा गया है । मुझे वह मिला है, भलाई का भी और बुराई का भी । मर्यादा पुरुषोत्तम राम को मिला था - अति कठोर रूप में - शूर्पणखा के विरूपण का - सीता के सदा के लिए छिन जाने के रूप में । इसलिए संभल कर चलना चाहिए।
पाप वह है जिसे गुप्त रखने की चेष्टा की जाए । जिसे लोक के सम्मुख स्वीकार करने का साहस न हो ।
पाप करने वाला कायर होता है उसका morale (जीवट) खत्म हो जाता है । वह छाया से भी डरता है । वह शेर-दिल कभी नहीं हो सकता । वह निर्लज्ज और घृणित हो जाता है ।
अतः पाप का स्पर्श, उसका दर्शन, उससे वार्तालाप, उसकी चर्चा और उसका विचार त्याज्य है ।
सुख ईश्वर की कृपा से ही आता है, अपने प्रयत्न से नहीं । प्रयत्न विफल भी हो जाते हैं । फिर भी प्रयत्न आवश्यक है । प्रयत्न के बिना परमेश्वर सुख नहीं देता और सुख भोगने का हक भी नहीं होता ।
वह कब और क्यों सुख देता है, हमारा हर प्रयत्न वह सफल क्यों नहीं होने देता, यह मुझे नहीं मालूम । ईश्वर के रहस्य में मेरा इससे अधिक प्रवेश नहीं ।
दु:ख भी उसकी मर्जी से ही होते हैं कि नहीं, यह भी मैं नहीं जानता । वह सुख स्वरूप है, यह तो निर्विवाद है । फिर भी दु:ख तो मनुष्य को होता ही है और खूब होता है । कुछ तो उसकी करनी का फल होता है, पर बहुतेरा undeserved भी होता है । इस संबंध में मैं इतना जानता हूं कि कुछ दु:ख वह प्यार से भी देता है, अपने प्रिय को उसके सुधार के निमित्त दंड देने के लिए या कभी-कभी उसे मात्र tease करने के लिए । पर ऐसे समय वह उसकी सुधि लेता रहता है और अंत में उसका उद्धार कर देता है ।
जो कुछ हो, वह परम कृपालु है और उसकी भक्ति बड़ी सुखद है ।
सर्वाधिक सुखद स्थिति मुक्त होकर परमपिता में मिल जाने और अपनी पृथक सत्ता को खो देने में नहीं है, बल्कि कीट,पतंग, पशु और, यदि उनकी कृपा हुई तो मानव योनियों में जन्म लेकर पिता- पुत्र का संबंध बनाए रखने में है । क्या हुआ यदि कीट- पतंग या पशु होंगे ? क्या उन योनियों का अंत नहीं होगा ? कभी तो मानव होंगे ? और जब मानव होंगे तो सर्वाधिक सुख की स्थिति यही होगी कि दु:ख में उनसे प्रार्थना और सुख में उनकी स्तुति करेंगे । निश्चय ही, प्रार्थना से दु:ख - निवृत्ति होगी स्तुति से सुख - संवृद्धि ।
यदि तुम्हें भय मालूम हो, तो अपने आप से पूछो कि
1. किसी से झगड़ा किया है, किसी को दुश्मन बनाया है ?
2. यदि कोई बदमाश है तो उसे कड़वी बात कही है या चुनौती दी है ?
3. प्रकृति से झगड़े हो, अर्थात खान-पान, रहन - सहन में कोई गलती की है - अधिक या गरिष्ठ भोजन किया है, कम सोए हो, अति शीत या तप्त वायु का सेवन किया है, अधिक या बहुत कम श्रम कर रहे हो, विकृत खाद्य, जल या वायु के सामने आए हो, चिंता की है ; घर की व्यवस्था में, उसकी रक्षा में, अपने शरीर की रक्षा में ढिलाई या भूल की है ?
4. किसी का अपकार किया है या चाहा है ? या
5. कोई अनैतिक कार्य - झूठ, छल आदि का व्यवहार किया है ? किसी के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया है ?
......... यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर ' नहीं 'आवे, तो समझ लो भय का कोई कारण नहीं है। चिंता का भी कोई कारण नहीं है।
मनुष्य का परिचालक और पथ प्रदर्शक बुद्धि होनी चाहिए, मन नहीं । बुद्धि मानक वस्तु है । वह निरपेक्ष है । व्यक्ति के साथ वह बदलती नहीं । वह ठीक रास्ते ले जाती है । मन स्वार्थ के, इच्छाओं के, प्रवृत्तियों के रास्ते ले जाता है, वह इन्द्रियों द्वारा चालित होता है ।
शास्त्रों ने बुद्धि को शरीर रूपी रथ का सारथि माना है, मन को लगाम और इंद्रियों को घोड़ा। यदि बुद्धि मन को वश में नहीं रखें तो इंद्रियां मन के अधीन नहीं रहकर उसे ही अपने अधीन कर लेती हैं और शरीर को अपनी राह खींच ले जाती है ; तब रथी आत्मा (व्यक्ति) पथभ्रष्ट हो जाता है।
बुद्धि तर्क पर आधारित है, अतः स्वतंत्र और निरपेक्ष होती है। यही हमारे व्यक्तिगत अभ्युदय और निःश्रेयस का अर्थात धर्म का साधक हो सकती है, यही हमारे सामाजिक आचार और व्यवहार का निर्देशक हो सकती है। मैं बुद्धि को ही सर्वस्व मानता हूं । शास्त्रों ने इसे महत्तत्त्व की संज्ञा दी है।
कभी-कभी instinct (अंतर्बोध) पर आधारित मन ही ठीक मार्गदर्शक होता है, बुद्धि ही भ्रामक होती है । वैसी दशा में instinct जातीय या व्यक्तिगत पूर्वानुभव पर आधारित स्मृति ही है और बुद्धि अशुद्ध तर्कों पर आधारित होती है। ऐसे तर्कों के या तो आधारभूत तथ्य गलत या अपूर्ण होते हैं या उनकी प्रणाली ही गलत होती है ।
मौसम भी बुरा होता है, पर कभी-कभी । बुरा प्रायः मन या शरीर ही होता है। कभी-कभी केवल मन ही बुरा होता है, वह शरीर में बुराई की भावना उत्पन्न कर देता है और आदमी अपने को अस्वस्थ मान कर मौसम से डरने लगता है ; अकर्मण्य बन जाता है और सचमुच रोगों का शिकार हो जाता है ।
अतः मन को सदा स्वस्थ और चुस्त रखना चाहिए। कार्यशील रहना चाहिए । तब भी रोग आवे तो उसका यथोचित उपचार करना चाहिए, पहले प्राकृतिक, फिर होम्योपैथिक, अंत में एलोपैथिक। साधारणतया कठोर वायु, ठंढ, धूप से नहीं डरना चाहिए । उग्र वायु, ठंढ और धूप से अवश्य बचना चाहिए ।
प्रातः स्नान और अल्प भोजन तथा ब्रह्म बेला का जागरण स्वास्थ्य की कुंजी है । स्वस्थ विचार सहानुभूति, कार्यशीलता स्वास्थ्य की कुंजी हैं ।
मेरे पांच गुरु हैं :
1. L. Dudley Stamp, जिन्होंने मुझे भूगोल की शिक्षा दी।
2. रामचंद्र शुक्ल, जिन्होंने मुझे हिंदी साहित्य की शिक्षा दी और साहित्य को परखने का दृष्टिकोण दिया ।
3. महात्मा गांधी, जिनसे मैंने अहिंसा और सत्य का महत्व समझा और यह सीखा कि उचित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी अनुचित साधनों का उपयोग गलत है
4. जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने मुझे भारतीय और विश्व राजनीति की शिक्षा दी और उसे देखने का शुद्ध दृष्टिकोण दिया, और जिन्होंने यह बताया कि भलाई का फल भला होता है और बुराई का बुरा ।
5. गोस्वामी तुलसीदास, जिन्होंने मुझे राम की भक्ति वत्सलता का परिचय दिया ।
ईश्वर जब मानव की सहायता के लिए आता है तो मानव बनकर ही आता है - डॉक्टर का, मित्र का, उपकारी का रूप लेकर आता है : compare Gandhji's remark, Even God dare not appear before a hungry man except in the form of bread.
जहां उसकी सहायता समूह, समुदाय, जाति या मानव-मात्र के लिए है, वहां वह राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद या गांधी का रूप लेकर आता है।
Good points
1. My thoroughness in studies and every other thing.
2. My merit.
3. My capacity for detached, rational thinking and living.
4. My dislike of harming others & society in general.
5. My devotion to studies.
6. My regularity in every walk of life.
7. My nearness to God.
8. My capacity of laughter & devoted friendship.
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Bad points
1. My lack of capacity for taking things easy.
2. My lack of tolerance of other people's shortcomings.
3. My liking for exclusive living and enjoying only the selected company.
My children have inherited most of the good & the bad points. They have improved upon some of my good points, but worsened my bad points.