11. पुण्य और पाप
11. पुण्य और पाप
परिभाषा
पुण्य वह कार्य है जिससे अपने - आप को दूसरे को और/या दूसरे को वर्तमान या भविष्य में सुख मिलता है ।
पाप वह कार्य है जिससे अपने - आप को और/या दूसरे को वर्तमान या भविष्य में दु:ख मिलता है ।
विश्लेषण
पुण्य और पाप कार्य हैं, विचार या भावना नहीं।
पुण्य से अपने - आप को सुख मिलता है, पर किसी दूसरे को दु:ख देकर नहीं । पाप से अपने - आपको दु:ख मिलता है, पर किसी दूसरे को सुख देकर नहीं।
पुण्य से यदि अपने - आप को सुख नहीं मिला या दु:ख मिला, तो उससे दूसरे को सुख अवश्य मिलता है । पाप से यदि अपने - आप को दु:ख नहीं मिला या सुख मिला तो उससे दूसरे को दु:ख अवश्य मिलता है ।
पुण्य से अपने - आप को और दूसरे को सुख साथ-साथ भी मिलता है । पाप से अपने-आप को और दूसरे को दु:ख साथ-साथ भी मिलता है ।
यह सुख या दु:ख वर्तमान में भी मिलता है । यदि वर्तमान में नहीं मिला, तो भविष्य में अवश्य मिलता है। यह वर्तमान और भविष्य दोनों में भी मिलता है।
विशेषता
इस परिभाषा में अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष नहीं।
यह कणाद की परिभाषा के समान भ्रामक नहीं, क्योंकि इसमें निःश्रेयस जैसा अस्पष्ट और अकल्पनीय भाव नहीं है ।
12. ढुलमुल नीति
ढुलमुल नीति, drift की नीति, ' चलने दो, देखो क्या होता है ' की नीति त्याज्य है।
जो बुरा है, गलत है, अशोभन है, अहितकर है, उसे निर्ममतापूर्वक छोड़ देना चाहिए, कोई हील- हवाला नहीं करना चाहिए।
जो ठीक है, हितकारी है, उसे संकल्पपूर्वक अपनाना चाहिए, कोई आलस नहीं करना चाहिए।
13. ईश्वर का आशीर्वाद
आज जब ईश्वर का आशीर्वाद वर्ष की पहली वर्षा बनकर बरस रहा है, तो प्रश्न उठता है कि हम पाप क्यों करते हैं ?
एक ओर वह आशीर्वाद बरसाता है, दूसरी ओर हम पाप करते हैं । अपने पाप को लेकर उस आशीर्वाद बरसाने वाले के सामने कैसे जा सकते है ?
किस मुंह से उसका आशीर्वाद लेने के लिए हम हाथ बढ़ाएंगे, अपने कलुषित पात्र में कैसे उसके आशीर्वाद का अमृत लेंगे ?
क्या वह हमें प्रसन्न दीखेगा ?
क्या वह हमसे अपना मुंह नहीं फेर लेगा ? तो हम मजा किरकिरा क्यों करें ? पाप क्यों करें ?
14. सत्य, प्रेम और दया
विश्व सत्य पर अवलंबित है। सत्य के बिना वह टिक नहीं सकता ।
विश्व प्रेम और दया पर भी अवलंबित है । प्रेम ही उसे रसमय बनाता है, वही इस रूखे विश्व को सिक्त करता है, उसे सुंदर बनाता है । प्रकृति का सारा सौंदर्य - भौतिक और आध्यात्मिक - प्रेम का ही आलोक है ।
और विश्व का सृजन और पालन परमात्मा की अक्षय दया के द्वारा ही होता है । उसकी दया उसके अणु अणु में व्याप्त है, शायद संहार में भी ।
अतः हमें भी सत्य और प्रेम का अवलंबन लेकर विश्व से एकरूप होना चाहिए ।
15. मेरी मान्यताएं
ईश्वर है, और वह निर्गुण, निराकार और सर्व व्यापी है। वह सगुण नहीं होता, अवतार नहीं लेता। वह पुकारने पर तुरंत सुधि लेता है।
उसने हमें जगत में इसलिए नहीं भेजा है कि हम दिन-रात उसी का ध्यान करें अथवा दिन का कोई बड़ा अंश प्रार्थना में लगाएं। उसने हमें यहां कर्म करने, लोक के प्रति अपना उत्तरदायित्व पूरा करने और लोक से सुख लेने के लिए भेजा है।
फिर भी, हमें प्रतिदिन कुछ समय प्रार्थना में लगाना चाहिए। वह समय 20 मिनट से 1 मिनट का हो सकता है।
उसे राम, कृष्ण, शिव या किसी दूसरे नाम से भी पुकारा जा सकता है, पर वह उनमें से कोई भी नहीं है।
यह जगत सत्य है।
आत्मा का शरीर से पृथक कोई अस्तित्व नहीं। वह शरीर संघटन का परिणाम है। शरीरान्त के साथ उसका भी अंत हो जाता है। अतः मृत्यु मोक्ष है, वह अनंत विश्राम है।
मृत्यु से परे कोई लोक नहीं। पुनर्जन्म नहीं, स्वर्ग नहीं, नरक नहीं, पितृ लोक नहीं, न्याय दिवस की प्रतीक्षा नहीं।
जीवन कर्तव्य है, सेवा है, उत्सर्ग है। सेवा परिवार की, समाज की, संसार की। सेवा का फल लोक कल्याण है। यही उसकी परिणति है, यही उसका साध्य। उसका और कोई फल नहीं है।
कोई भी भलाई बिना फल दिए नहीं रहती। वह कर्ता अथवा अन्य का कल्याण करती है। बुराई भी बिना फल दिए नहीं रहती, वह कर्ता अथवा अन्य की हानि करती है। बुराई करने वाला अवश्य नष्ट हो जाता है।
यह जीवन वरदान है। यह जगत परमात्मा की सृष्टि है, सुंदर, लुभावनी, अद्भुत, सुखमय।
जीवन कर्म के अतिरिक्त भोग भी है। वह पूर्व - जन्म कृत पाप - पुण्यों का भोग नहीं, वरन परमात्मा-प्रदत्त सौंदर्य और सुख का भोग है , जो इस जगत में प्रभूत परिमाण में बिखरा पड़ा है। वह बुद्धि, सद्भाव, संयम, निस्वार्थता, सेवा तथा परिश्रम से प्राप्त होता है।
पुण्य से इस सुख के भंडार की वृद्धि होती है, पाप से उसका क्षय ।
रोग का संयम और बुद्धि से पूर्ण बहिष्कार किया जा सकता है। नीरोग बुढ़ापा दु:ख की नहीं, सुख और तृप्ति की अवस्था हो सकती है।
16. मांसाहार
मांस या मछली खाना निस्संदेह हिंसा है। इससे जो भी लाभ हो, यह निस्संदेह अधर्म है ।
अधर्म और धर्म के बीच कभी समझौता नहीं हो सकता।
पाप अपना फल देता ही है।
मनुष्य द्वारा मनुष्य-हिंसा उसके द्वारा पशु-हिंसा का ही प्रकृति-प्रदत्त दंड है ।
17. दुष्कृत - विनाश और साधु - परित्राण
दुष्ट उठ खड़े होते हैं और साधुओं को सताते हैं । साधु उनका सामना करना छोड़ भगवान को पुकारते हैं । भगवान आकर दुष्टों का नाश कर देते हैं। पर साधु जहां के तहां रह जाते हैं। वे केवल बच जाते हैं, न्याय उनके साथ नहीं होता।
साधुओं की परमुखापेक्षिता ही उनके साथ न्याय नहीं होने देती। यदि वे साहसपूर्वक, संघ शक्ति द्वारा, अहिंसक ढंग से ही दुष्टों का सामना करते तो दुष्ट भी जाते और उनके साथ भी न्याय होता। सच्ची सुव्यवस्था , सच्चा राम-राज्य तभी कायम होता । केवल भगवान के भरोसे रहने पर, पहले तो उन्हें पाप का घड़ा भरने के समय तक ठहरना पड़ा और फिर पापी का नाश करके भगवान के चले जाने के बाद राज्य किसी लव - कुश, सुग्रीव और विभीषण को ही मिलेगा , जिससे पाप का घड़ा फिर धीरे-धीरे भरने लगेगा। भगवान दुष्कृत - विनाश करते हैं , साधु - परित्राण नहीं करते। वह तो साधु-प्रयत्न द्वारा ही हो सकता है।
18. राम नाम
जीवन ऐसा होना चाहिए कि सारा जीवन ही राम- नाम का जप हो।
यदि दु:ख हो, तो राम का नाम लो; दुख काई की तरह फट जाएगा।
यदि मन में कुप्रवृत्ति जागे, तो तत्काल राम का नाम लो; कुप्रवृत्ति हवा की तरह उड़ जाएगी।
19. विश्वास और अविश्वास
1. मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं।
2. शिव, राम और कृष्ण को यदि ईश्वर कहा जाता
है, तो मुझे आपत्ति नहीं । नाम से क्या ? मैं इन
नामों से ईश्वर को पुकारने के पक्ष में हूं और
पुकारता हूं।
3. शिव, राम और कृष्ण ऐतिहासिक मनुष्य थे,
यह मैं मानता हूं।
4. मैं सत्य में विश्वास करता हूं।
5. धर्म को मैं सृष्टि और समाज के स्थायित्व का
कारण मानता हूं। धर्म से कभी अहित नहीं हो
सकता। धर्म प्रत्येक दशा में आचरण करने
योग्य है।
6. अधर्म से कभी, किसी दशा में, हित नहीं हो
सकता। उससे सदा अहित होता है।
7. मैं मूर्ति पूजा का विरोधी नहीं हूं और उसे करता
हूं।
8. मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता।
9. मैं जीवात्मा को अमर नहीं मानता।
10. मैं फलित ज्योतिष को बिल्कुल नहीं मानता।
11. मैं 'जोग' द्वारा अलौकिक सिद्धि की प्राप्ति में
सर्वथा अविश्वास करता हूं।
12. मैं 'आध्यात्मिक प्रकाश' के प्रसारण को
सर्वथा छल मानता हूं।
13. मैं किसी प्रकार की अलौकिक सिद्धि में
विश्वास नहीं करता, जैसे पानी पर चलना,
आकाश में उड़ना, सहसा प्रकट होना,
अंतर्ध्यान होना आदि।
14. मैं भूत, प्रेत, ओझा, जादू, जोग, ज्योतिष में
विश्वास नहीं करता।
15. मैं गंगा, उगते हुए सूर्य, शीतल वायु, प्रकाश,
चंद्र किरण, जल, अग्नि का पुजारी हूं।
20. सत्य की राह
सत्य का व्रत असिधारा- व्रत है,अर्थात इससे जौ भर भी हटने में, थोड़ा भी असावधान रहने में, गिरने का खतरा है । यह रांची रोड जैसा है।
पर सत्य की राह ही एकमात्र राह है । दुनिया में और कोई राह है ही नहीं। सभी राहों में खाइयां हैं, उलझने हैं, अंधी गलियां हैं, वन हैं, भूल भुलैये हैं, कांटे हैं ; उन पर चलने में उलझ-पुलझ कर मर जाना है। केवल सत्य की राह ही प्रशस्त है। यही पिटा- पिटाया, साफ - सुथरा, छायादार, शुद्ध वायु सेवित आनंद दायी राजमार्ग है।
इसमें कुछ भी डराने वाला नहीं है, यह सर्वथा सुगम, थकावट से रहित और चलते हुए ही गंतव्य-प्राप्ति का आनंद देने वाला है।
इसलिए मैं गलत राह पर चलने वालों से कहता हूं इस लुभावनी राह पर आओ। और तब मैं कानून और परमात्मा दोनों से कहता हूं, उनकी सभी पुरानी गलतियों को माफ कर दो ।