21. आश्रम और वर्ण
21. आश्रम और वर्ण
जिस प्रकार सत्य ही एकमात्र मार्ग है ,उसी प्रकार गार्हस्थ्य ही एकमात्र आश्रम है। घर पर ही माता-पिता की देखरेख में विद्याध्ययन करना, फिर विवाह करके उत्पादन और उपभोग के कार्य में लगना, उसके बाद घर पर ही बाल-बच्चों के आश्रय में रहकर निःशुल्क समाज- सेवा करना और अंत में वहीं बाल-बच्चों के सम्मुख जीवन-लीला समाप्त करना- यही मनुष्य जीवन की कहानी है । सारा जीवन एक उपभोग है और एक साधना - धर्म की, अर्थात अभ्युदय और निःश्रेयस (मानव - कल्याण) की।
उसी प्रकार वर्ण भी एक ही है। प्रत्येक व्यक्ति ब्राह्मण भी है, क्षत्रिय भी, वैश्य (संपत्ति का उत्पादक) और शूद्र (स्वयं अपना सेवक) भी। प्रत्येक मानव का यह चतुर्दिक विकास उसे पूर्णता को पहुंचाता है और किसी को एकांगी अथवा दलित जीवन बिताने को बाध्य नहीं करता।
22. व्यवहार का दर्शन
दुष्टता का सामना करने के दो ही उपाय हैं :
(1) क्षमा, उदारता, दया, अहिंसा, प्रेम, तथा
( 2) ताड़न ।
दुष्ट को क्षमा की, मन निश्चिन्त हो गया। दुष्ट की दुष्टता पी गए, हृदय विशाल बन गया। अहिंसा और प्रेम द्वारा उसका हृदय जीतने की कोशिश की, दुष्ट- हृदय-परिवर्तन की दिशा में प्रगति हुई । इन सबके द्वारा हम ऊपर उठे, दुष्ट भी कुछ ऊपर उठा। कभी-कभी वह साधु भी हो गया। अतः यह उपाय अपनाने योग्य है, यद्यपि सफलता अति विरल होती है। प्रायः इसका उल्टा असर भी होता है।
दूसरा उपाय नीच के साथ नीच बनना नहीं है। यह उसे दंड देना है। सामान्य मानव, या सन्मानव भी, दुष्ट द्वारा छला जाना या आहत होना पसंद नहीं करता। छल के बदले छल करना अभीष्ट नहीं। यह हमें नीचे गिराता है। पर छली के हाथ-पैर तोड़ देना या उसे निष्क्रिय बना देना, बदमाश को पीट देना या पटक देना या पुलिस में दे देना ; कटुवादी या व्यंग्यवादी को वैसा ही प्रत्युत्तर देना; अभिमानी का दर्प चूर करना पुरुषार्थ है। यह महात्मापन भले ही न हो, पुरुषार्थ अवश्य है।
बहुधा दूसरा उपाय अशक्ति के कारण भी नहीं अपनाया जाता। यह कायरता है। अतः आक्रामक को आक्रांत करना,अशक्ति की अवस्था में भी, वीरता है, पुरुषार्थ है, सन्नीति है।
परोपकार में ही जीवन की सार्थकता है। यह तो जीवन का नशा होना चाहिए।
23. मृत्यु के बाद
मृत्यु के बाद शरीर पंचभूतों में मिल जाता है। प्राण नष्ट हो जाते हैं। आत्मा भी समाप्त हो जाती है। मृत्यु के बाद हम केवल नहीं रहते। हम न स्वर्ग जाते हैं, न नरक, न पितृ लोक, न गो लोक; न ईश्वर में ही मिलते हैं। हमें सुदूर दक्षिण यमलोक में नहीं जाना पड़ता। न हम प्रेत योनि में जाते हैं, न प्रलय काल तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं, न किसी अन्य लोक - चंद्र, सूर्य आदि - में जाते हैं। न हम फिर मनुष्य, या पशु, या सांप, या कीड़ा, या पक्षी कुछ होते हैं। न किसी भयानकता का, कष्ट का, बेचैनी का, भूख का, प्यास का, धूप का, ठंढ का, अतृप्ति का ही अनुभव करना पड़ता है। न हमें इनके विपरीत किसी प्रकार का सुखद अनुभव ही होता है।
यह अनीश्वरवाद नहीं, नास्तिकता नहीं, अधार्मिकता नहीं, विश्वासहीनता नहीं। यह ठोस सत्य है।
24. निज-विचार-दोहन
1. परमात्मा है।
2. वह सगुण - निर्गुण दोनों है, अर्थात वह विश्व में है और उसके बाहर भी। यदि वह केवल बाहर या परे है, अर्थात निर्गुण है, तो त्रिगुणात्मिका सृष्टि नहीं रच सकता। यदि केवल सगुण है, तो तीनों गुणों के अधीन और सीमित हो जाता है।
3. वह सगुण है, तो दयालू अवश्य होगा। पर वह प्राणियों के सुख-दुख से निर्लिप्त जान पड़ता है। उसके इस प्रकृति - वैषम्य का रहस्य मेरी समझ में नहीं आता।
4. कोई व्यक्ति न ईश्वर का अवतार है, न उसका प्रतिनिधि या दूत, न उससे किसी की कोई विशेष निकटता है।
5. जीव, इस शरीर के साथ मर्त्य है ।
6. जगत, अर्थात मर्त्य लोक, सत्य है। एक यही जगत सत्य है।
7. वेद या कोई अन्य ग्रंथ ईश्वरकृत नहीं है।
8. मनुष्य इतर प्राणियों से क्रमशः विकास का परिणाम है। उसके संस्कार पूर्व जन्मों से नहीं, पूर्व- पुरुषों से आते हैं। उसका जीवन पूर्व कृत्यों का नहीं, जागतिक स्थितियों का परिणाम है।
9. ज्ञान के साधन केवल चार हैं: ज्ञानेंद्रियां, प्रयोग अनुमान और आप्तवाक्य ।
10.जगत प्राकृतिक नियमों से चलता है । आध्यात्मिक शक्ति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। अलौकिक सिद्धियां या चमत्कार मिथ्या हैं।
11. उसी प्रकार भूत, प्रेत, डायन, चुड़ैल, पिशाच, मंत्र, तंत्र सर्वथा मिथ्या हैं।
12. धर्म जगत की रक्षा करता है। धर्म वह है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो, अर्थात जिससे अपना और जगत का कल्याण हो।
13. जीवन दुखमय नहीं है । यदि सभी अपना - अपना कर्तव्य पालन निष्ठा से करें और ज्ञान- विज्ञान की पर्याप्त उन्नति हो, तो दुख को जगत से निर्वासित किया जा सकता है।
14. परिवार, देश और जगत की सेवा ही ईश-सेवा है । ईश्वर की शरणागति अथवा भक्ति इस सेवा का पूरक है।
15. मनुष्य की दु:ख निवृत्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था अनिवार्य है। अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए विश्व - संघ की स्थापना भी अनिवार्य है।
25. प्रार्थना क्यों?
1. ईश्वर ने सृष्टि रची है। उसने पृथ्वी, जल, वायु, सूर्य, अन्न, मेरा शरीर, उसकी क्रियाएं, मां-बाप, पड़ोसी, औषधि आदि रचे हैं। अतः प्रार्थना हमारा कृतज्ञता-ज्ञापन है।
2. ईश्वर महान और सत् (good) है । प्रार्थना द्वारा हम उसे महान और सत् के सानिध्य में आते हैं, अतः हम भी कुछ महान और सत् बनते हैं। इसके अतिरिक्त, प्रार्थना उस महान और सत् की स्वीकृति है।
3. ईश्वर एक चेतन सत्ता है। हम सत्य और शिव का जब पालन करते हैं, तो उसका कुछ अंश दुनिया उपेक्षित कर देती है । ईश्वर उसे उपेक्षित नहीं कर सकता। अतः वह हमारी अच्छाइयों का अंतिम लक्ष्य भी है, जिसकी प्रार्थना द्वारा हम अपने कार्य को उसे अर्पित करते हैं।
26. The ideal
God is great and therefore good.
He takes care of the whole universe - the Earth, the Sun, the Moon, the Stars, their movements, the Air, the Ether, Water, Minerals, Fertility.
He as well takes care of every man, even the lowliest, and the tiniest of animals.
Therefore, He deserves the utmost devotion from every being.
Devotion or Bhakti is a pleasure. It is the root of all virtu or Dharma. It is the enjoyment of virtue. It is its own reward; it is the highest bliss; in it all virtue is rewarded.
Devotional living is an inspired and dedicated living. The Bhakta, and not the Gyani or Yogi or Tantrik or Yajnik, is impervious to pleasure or pain, suffering or enjoyment. This life is not averse to, but rather the inspirer of pure, selfless living dedicated to the service of society and the good of the world, with a feeling for all created beings. It does not consist in whole time indulgence in Bhajan and Kirtan, but only in grateful recognition of His Mercy in the most adverse circumstances.
27. Divine Favours
1. My scholarship at Matriculation and
I.A. ; my Honours and Gold Medal at
B.A. and my second class First at
M.A.
2. My appointments at Model Institute
Babura, Maner and Barh.
3. My appointments as Head
Examiner of Magadh University and
Bihar School Examination Board,
Paper Setter, Tabulator and
Honours Examiner.
4. All the happiness I have enjoyed
hitherto and am still enjoying.
28. कर्मण्येवाधिकारस्ते
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्म फल हेतुर्भू: मा ते संगोस्तवकर्मणि ।।
.... गीता
मुझे क्या मिल रहा है, मेरा क्या हो रहा है, मेरे बच्चे क्या होंगे, इसे मुझे कतई नहीं देखना है। मुझे खम ठोक कर जो आवे उसका सामना करना चाहिए, उसे भोगना चाहिए। खम ठोक कर अपना कर्तव्य करना चाहिए, सत् से अपने को एकाकार कर देना चाहिए - सत् यानी कल्याण।
आवश्यकताएं तो हैं,और वे सिर पर सवार हैं। उनके पूरी होने के लक्षण नहीं दिखाई देते। फिर भी, उचित दिशा में प्रयास करना आवश्यक है। वे अवश्य पूरी होंगी।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए ।
इसलिए वे आज ही पूरी हो जाएं, इसके लिए सिर फोड़ने की जरूरत नहीं। धैर्य अपेक्षित है।
29. शूर्पणखा
राम का चरित्र पूर्ण था, पर वह अति की सीमा में पहुंच गया था। बाली का वध तो निस्संदेह उस चरित्र की कालिमा थी। पर शूर्पणखा का विरूपण, सीता का निष्कासन, शंबूक का वध अच्छी नीयत से किए हुए गलत काम थे। लक्ष्मण का निर्वासन भी एक ऐसा ही कार्य था । राम ने मर्यादा को बुरी तरह पकड़ा था। महापुरुष मर्यादा के दास नहीं होते, वे बुद्धि और भावना से उसे मर्यादित करते हैं।
राम नहीं जानते थे कि नारी और पुरुष का पारस्परिक आकर्षण ही सामान्य और स्वाभाविक है, अनाकर्षण असामान्य और अस्वाभाविक। राम अति सुंदर थे। कौन उन पर नहीं मोहा ? जनकपुर की सखियां आपस में कहती हैं -
कहहुँ सखी अस को तनु धारी ।
जो न मोह यह रूप निहारी ।।
वे मर्यादित थीं, फिर भी अपनी आंखों को ही तृप्त करने के लिए, यदा-कदा राम का दर्शन और सानिध्य प्राप्त करने के लिए, वे सीता से उनके विवाह की प्रार्थना करती हैं। ग्रामीण नारियों का हृदय भी राम का रूप देख वश में नहीं रहता। भले ही वे प्रेम-प्रस्ताव नहीं करती, पर राम के पास जाती हैं, उनके विषय में सीता से बातें करती हैं ।
जब इन गंवारिनों की यह दशा थी, तो शूर्पणखा तो राजकन्या थी, वह आर्य ललना भी नहीं थी, पुनर्विवाह उसकी जाति में मना नहीं था। फिर राम को देखकर उसका मन हाथ से निकल गया तो बुरा क्या हुआ ? प्रेम प्रस्ताव भी किया तो क्या बुरा किया ? प्रेमी हठ करता ही है, यदि हठ भी किया तो बुरा नहीं था। वह राम से बलवती तो थी नहीं, जो बलात्कार करती। राम आसानी से उसे हटा सकते थे, मार कर भगा भी सकते थे। पर उन्होंने उसके नाक - कान काट डाले। उसे सदा के लिए विरूपित, विकलांग कर दिया। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य निवारण की दृष्टि से नहीं, बैर-भाव से किया गया । यह राम के अनुरूप नहीं था । किसी को भी अपने से नीच समझना, हेय दृष्टि से देखना, अपमानित, दंडित और आक्रांत करना अनुचित है। विरूपित होने के बाद अब वह किस योग्य रही ? इससे अच्छा तो था उसे मार डालना। पर मर्यादा के दास राम कहते - भला नारी हत्या ?
परन्तु पर का अपकार भयंकर प्रतिशोध लेकर आया। इधर शूर्पणखा विरूपित हुई, उधर सीता राम के हाथ से गईं। तुरत चौदह हजार राक्षस आए और सीता को लक्ष्मण के साथ गिरि-गुहा के एकांत में भेजना पड़ा। फिर आनन-फानन सीता हरी गईं। वे राम के हाथ से गईं सो गईं। उन्हें अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। फिर भी छह महीना राम के साथ नहीं रह पाईं। कुटिया में ही उन्हें आश्रय मिला। और जब पुन: राम को मिलने को हुई तो धरती के ही पेट में चली गईं। कितनी बड़ी सजा मिली ? निरपराधिनी सीता का सारा सुख लुट गया। जीवन भर वह फिर राम को न पा सकीं। राम का भी कितना नुकसान हुआ ? जीवन भर उन्हें पत्नी प्राप्त नहीं हुई।
इसलिए Letter of Law का कायल नहीं होना चाहिए। अपनी धार्मिकता के गुरुर में दूसरे को नाचीज नहीं समझना चाहिए। भावना का आदर करना चाहिए। प्रेम आदर की वस्तु है, ताड़ना की नहीं; भले ही उसे हम स्वीकार न करें ।
30. How to Stop Worrying and Start Living
1. To avoid worry, live in "daylight
compartments". Don't stew about
the future. Just live each day until
bed time.
2. If trouble comes, (a) ask yourself
what is the worst that can possibly
happen; (b) prepare yourself for it;
(c) then calmly try to improve upon
it.
3. To solve worry - problems, (a) write
down precisely what you are
worrying about; (b) then write
down what you can do about it;
(c) then decide to do it; and lastly
(d) start immediately to carry out
the decision.
4. Analyse your problem thus :
(a) What is the problem ? (b) What
is the root cause of the problem ?
(c) What are all possible
solutions ? (d) What is your
solution ?